* अधिकरण - ऊष्मन् (ऊष्मणो) from ...(अ.ह्र.सू.१३/२५) ||
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संदर्भ -
ऊष्मणो अल्प बलत्वेन धातुम् आद्यम् अपाचितम् ।
दुष्टम् आमाशयगतं रसं आमं प्रचक्षते ॥
(अ.ह्र.सू.१३/२५)
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प्रदेश - (अ.ह्र.सू.१३/२५) मधील "आम" संबंधीत "ऊष्मा" हा "जाठराग्नी" म्हणजेच "पाचक पित्त"हेच आहे.
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उद्देश -
१. ऊष्मणः = अग्नेः ।.......ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) अरुणदत्त - सर्वांड्गसुन्दर व्याख्यया
२. ऊष्मणो = रसाग्नेः।.............ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) हेमाद्रि - आयुर्वेद रसायन टीका
३. अग्निः एव पित्तान्तर्गतः -> कुपितSकुपिता -> मात्रा-अमात्रत्वम् उष्मणः।
..............ऊष्मणः (च.सं.सू.१२/११) श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका
४.पित्त एव अग्निः । (सु.सू.२१/९)
५.अन्नस्य पक्ता = पाचक पित्तं ऊष्मा वा (अ.ह्र.शा.३/४९)
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निर्देश -
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१. ऊष्मणः = अग्नेः ।.......ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) अरुणदत्त - सर्वांड्गसुन्दर व्याख्यया
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ऊष्मणो अल्प बलत्वेन धातुम् आद्यम् अपाचितम् ।
दुष्टम् आमाशयगतं रसं आमं प्रचक्षते ॥
(अ.ह्र.सू.१३/२५)
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मराठीत अर्थ -
अग्नीच्या कमजोरपणामुळे आद्य धातु जो म्हणजे - रस ,
तो आमाशयांत अपक्वच राहून (वातादिकांनी ) दुष्ट झाला,
म्हणजे त्याला आमसंज्ञा प्राप्त होते.
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ऊष्मणः * अग्नेः
अल्पबलत्वेन * दौर्बल्येन
आद्यं * प्रथमं
धातु रसं * रसाख्यम्
अपाचिताम्-आमं प्रचक्षते-वदन्ति ।
आचार्याः इति शेषः ।
किम्भूतं रसम् ? आमाशयगतम् ।
तथा, दुष्टं - वातादि-अनुशयितम् ।
'रस'ग्रहणम् - अनिलस्य निरासार्थम् ।
अन्यथा - आद्यो धातुः वाताख्य इति शड्क्येत ।
वातादिनाम् अपि धातु संज्ञाsस्ति-एव ।
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२. ऊष्मणो = रसाग्नेः।.............ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) हेमाद्रि - आयुर्वेद रसायन टीका
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आमलक्षणम्-आह - ऊष्मण इति ।
ऊष्मणो * रसाग्नेः ।
धातुं * न दोषं मलं वा ।
आद्यं * न रक्तादिकम् ।
रसं * न रसत्वात्- प्रच्युतं रक्तत्वम्-अप्राप्तम् ॥
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"उष्मणो अल्प बलत्वेन.." ???
==>?
आमाची उत्पत्ती ही उष्म्याच्या अल्पबलामुळेच होते .
आता हा उष्मा म्हणजे नक्की काय ?
उष्मा हा शब्द कुठे आला आहे ?
तर तो अग्निच्या कार्यात --{च.सू.१२/११ श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका} आलेला आहे !
पुढे...
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३. अग्निः एव पित्तान्तर्गतः -> कुपितSकुपिता -> मात्रा-अमात्रत्वम् उष्मणः।
..............ऊष्मणः (च.सं.सू.१२/११) श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका
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मरीचिः उवाच -
अग्निः एव पित्तान्तर्गतः : *इति शरीरे ज्वालादियुक्तवन्हिनिषेधेन पित्तोष्मरुपस्य-
वन्हेः सद्भावं दर्शयति ।
कुपितSकुपिता *न तु पित्तादभेदं,
शुभा शुभानि करोति,
तद् यथा -
१. पक्तिम्-अपक्तिम् : *इति अविकृति-विकृति-भेदेन पाचकस्य-"अग्नेः" कर्म ।
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२. दर्शनम्-अदर्शनम् *इति दर्शन-अदर्शने नेत्रगतस्य-आलोचकस्य,
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३. मात्रा-अमात्रत्वम् उष्मणः,
४. प्रकृति-विकृति वर्णो, *इति वर्णभेदौ च त्वक्-गतस्य भ्राजकस्य,
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५. शौर्य-भयं,
६. क्रोधं-हर्षं,
७. मोहं-प्रसादम्, *इति ह्र्दयस्थस्य साधकस्य,
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*रञ्जकस्य तु बहिःस्फुटकार्य-अदर्शनात् उदाहरणं न कृतम् ।
इत्येवम् आदि इति च अपराणि द्वंद्वानि इति ।
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ह्यावरील *व्याख्या (टीका) वाचणे कमप्राप्त आहे !
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ह्यावरून
१. ऊष्मणो म्हणजे अग्नि हे अरुणदत्तच्या वचनानुसार निश्चित होते
आणि कोणता अग्नि ? तर पित्तान्तर्गत अग्नि हे महर्षी मरीचिंच्या वचनावरुन निश्चित होते.
तसेच....
पुढे....
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४.पित्त एव अग्निः । (सु.सू.२१/९)
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" न खलु पित्त-व्यतिरेकात्-अन्योsग्निः-उपलभ्यते ॥ " (सु.सू.२१/९)
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ह्या वरुन
* पित्त हे तेजस महाभूत प्रधान द्रव्य असून अग्नि हा त्या स्थित ऊष्म(उष्ण) असा गुण आहे व
o त्यात आश्रयाश्रयी भाव आहे ............ हे निश्चित होते.
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त्याचप्रमाणे,
५.अन्नस्य पक्ता = पाचक पित्तं ऊष्मा वा (अ.ह्र.शा.३/४९)
" अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरेरितम् ।
दोषधातुमलादीनाम्-उष्मा-इति-आत्रेय शासनम् ॥ "
(अ.ह्र.शा.३/४९)
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अर्थात
अन्नाचे पचन करणारे पित्त...
पूर्वी (दोषभेदीय सूत्रस्थानातील १२व्या अध्यायात) सांगीतलेले
* "पाचक" होय (असे धन्वंतरींचे मत आहे.) तर,
* वातादित्रिदोष-सप्तधातु-तीन मल यांच्यातील "ऊष्मा" होय
असे आत्रेयांचे मत आहे.
* येथे ऊष्मा हा शब्द त्रिदोष - सप्तधातु - त्रिमल यांचे सहाचर्य दर्शवितो !!
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शारीर ऊष्म्याचे मात्रा - अमात्रात्व हे भ्राजक पित्ताचे कर्म आहे असा अर्थ चक्रपाणिदत्तांनी काढलेला आहे हे निश्चित,
पुढे.. त्याच प्रमाणे - ३, ४ व ५ वरुन ...
आमाशयस्थित पाचक पित्ताचे कार्य पचनासाठी लागणार्या ऊष्म्याची मात्रा निश्चित ठेवणे,
असा अर्थ
हेत्वर्थ +/- अतिदेश ह्या तंत्रयुक्तींनी काढता येतो.
(असे माझे एकीय मत आहे, आपण स्वतः शास्रीय तर्क करून मगच त्यास न्याय द्यावा.)
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सार काय निघतो ??
अनेकान्त तंत्रयुक्ती वापर! -----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
"ऊष्मा" म्हणजे नक्की काय ?
ह्यासाठी "पदार्थ तंत्रयुक्ती" वापरलेली आहे.
पहावी..
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१. अरुणदत्त - अग्नि !
कोणता ? - जाठराग्नि
का ? - (स्थानसापेक्ष)
२. हेमाद्रि - रसाग्नि !
कोणता ? - आहाररसापासून रसाची निर्मिती करणारा
का ? - रस ह्या आद्य धातु च्या अपचित अवस्थेबद्दल चर्चा चालु आहे म्हणून.
३. मरीचि - मात्रा-अमात्रत्वम् उष्मणः {त्वक्स्थित=सार्वदैहिक}
चक्रपाणिदत्त - त्वक्-गतस्य भ्राजकस्य
का ? - भ्राजक पित्त कर्म
* अर्थापत्ती तंत्रयुक्तीसापेक्ष - पाचक पित्त कर्म {आमाशयस्थित+रसनिर्मितीसापेक्ष}
४. वाग्भट - १. पाचक पित्त = अग्नि (धन्वंतरिसंप्रदाय)
२. सप्तधातू-त्रिदोष-त्रिमल स्थित उष्मा = अग्नि (आत्रेय संप्रदाय)
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निष्कर्ष -
१. ऊष्मा = आमाशयस्थ ऊष्मा = जाठराग्नि = पाचकपित्त
...............* "पदार्थ तंत्रयुक्ती" नुसार !!
२. पित्त हे तेजस महाभूत प्रधान द्रव्य असून अग्नि हा त्या स्थित ऊष्मा (उष्ण) असा गुण आहे
३. त्यात आश्रयाश्रयी भाव आहे हे निश्चित होते.
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वैद्य प्र प्र व्याघ्रसुदन
९८६७ ८८८ २६५
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काढलेला निष्कर्ष माझे "एकीय"मत आहे असे नाही, शास्राधार देण्याचा प्रयत्न केला आहे.
तरी आपण सर्वांनी सूक्ष्मावलोकनाने त्रुटी भरून काढाव्यात व सदर संभाषेस अजून PERFECTION कडे न्यावे.