Monday, July 6, 2015

वैद्यक-गणहो यारे यारे

वैद्यक-गणहो यारे यारे,
एक-एक धागा विणूया सारे !
ध्वज आयुर्वेदचा फडकवूया रे !
वाहती पहा आरोग्याचे वारे !
आयुर्वेदामृत जनी पसरवूया रे !!

असता समूह वैद्यांचा,
तरी रे.. भरतभूवरी आरोग्य साशंक का रे ?
करा निःसंशय आधी सर्व जना रे..
निरोगी बलवान करा भारता रे !!

होता प्रज्ञापराध, मग जन सारे भोगे...
करुनही यत्न बहु, रोग लागती मागे...
टाळावया जनपद विध्वंसाचे धोके..
चला वेळीच घाला सदवृत्ताचे टाके !!

रोग नाही , अपथ्या-वाचून...
सावरावे जनास.... प्रज्ञापराधा पासून !
पथ्य पाळीता, सारे सोपे !
आपल्या हाती आयुष्याची मापे !!

दिनचर्येचे महत्व आगळे...
पालन करिता सहज ते कळे !
सांगून लोका सुज्ञ करा रे...
आधी स्वतः अवलंबून दावा रे !!

अहो, सहा ऋतुंचे... सहा सोहळे...
परी, "आहार-विहार" कोणा न कळे !
ऋतुसंधीत शोधनाने नांगरुया मळे...
ऋतुचर्या पाळता, चोखा आरोग्याची फळे !!

धन्वंतरी... एकची रोगहर्ता...
कृपेसाठी व्हावे आपणची कर्ता !
तन-मनाचे आपणच भर्ता !
इंद्रियसंयमी न येई रोगवार्ता !!

व्हावा आयुर्वेदाचा अखण्ड जागर...
अन् आरोग्याची भरु द्या घागर !!
कधी न पडावा आयुर्वेदाचा विसर..
सर्वत्र फुटावे आयुर्वेदामृताचे पाझर !!

वैद्यक-गणहो यारे यारे,
एक-एक धागा विणूया सारे !
ध्वज आयुर्वेदचा फडकवूया रे !
वाहती पहा आरोग्याचे वारे !
आयुर्वेदामृत जनी पसरवूया रे !!

- प्र* 12:49 PM 6/26/2015 ‪
#आयुर्वेदामृत‬
© वैद्य प्र. प्र. व्याघ्रसूदन
संपादक व लेखक : आयुर्वेदामृत,
पुनर्वसु आयुर्वेदीक चिकित्सालय, न.मुं-७०५.
संपर्क : ९८६७ ८८८ २६५

Tuesday, March 1, 2011

vdppw @ CORRELATION STUDY !

एखाद्या स्वशास्र सिद्धांताबाबत विचार करताना...
स्व-शास्रातील,
काही सूत्रे योग्य असे म्हणून वापरणे

काही सूत्रे वेगळ्या=स्वैर-अर्थाने घेऊन वापरणे
किंवा
चूकीची आहेत असे सांगून ती न वापरणे..
आणि
इतर शास्रांच्या सिद्धांतांचा वापर करून,
आपल्या शास्रसिद्धांतांची पुनःसिद्धी...
करण्याचा प्रयत्न करणे हे पोरखेळ आहेत !
अनेक ज्येष्ठ वैद्यांनी सुद्धा ही "स्वैर बुद्धी" शास्रविघातीनी असल्याचे म्हण्टले आहे !!
अर्थात, स्वशास्राचे पुर्णानुकरण करावे, पश्चात इतर शास्रांचे ज्ञान घ्यावे !!
परशास्र ही पुर्ण शिकावे व मगच "CORRELATION STUDY " करावा.
परंतु स्व शास्र सिद्धांतांचा बळी न देता !!
-
वैद्य प्र प्र व्याघ्रसुदन

Saturday, January 15, 2011

स्निग्धोष्णः मकरसंक्रांतः ॥

॥मकरसंक्रांत॥

मकर ?

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मकर =

पुं. नाम । योनिविशेषः ।

जलचर प्राणि.

मत्स्यः,

व्युत्पत्ति -

१.मनुष्यं कृणाति हिनस्ति इति मकरः ।

२.मं विष किरति वा इति मकरः ।

संहिता संदर्भ -

१.वारिशयप्राणी (च.सू. २७/४०)

२.हिंस्रदंष्ट्रकः (सु.सू.४६/११८-९,अ.ह्र.सू.६.५३,अ.सं.उ.४३/१)



संक्रांत ?

====>

संकरस्य अन्तः ॥

संकर =

पुं. क्रिया/अवस्था विशेषणम्‌ ।

संमिश्रणम्‌ (अ.सं.शा.८/१८)

एकत्रावस्थानम्‌ (हे.अ.ह्र.सू.१/३२)



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* आजच्या दिवसाचे दोन विशेष महत्वाचे शारीर गुण !! स्निग्ध व उष्ण !! *

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॥स्निग्ध गुण निरुपणम्‌॥



पु.

विशेषणः,

प्रीतियुक्तः (सु.सू.३४/२४)

मित्रभावयुक्तः । (सु.क.१/८-११)



गुण.

विंशतिद्रव्यगुणेषु एकः। (अ.ह्र.सू.१/१८)

आप्यद्रव्यगुण. । (सु.सू.४१/४)

चिक्कणः । (सु.सू.३६/३)

रुक्षविपरितः। (च.सू.१/६१)



तस्य कर्म -

क्लेदने शक्तिः । (अ.ह्र.सू.१/१८)

वातहरं श्लेष्मकारि वृष्यं च (च.शा.६/१०)

स्निग्धगुणः स्नेहकृत्‌-मार्दवकृत्‌-बलवर्णकरः च । (सु.सू.४६/५१६)



महाभूतत्व -

पृथिवि + अम्बु गुण भूयिष्ठो वीर्यसंज्ञको गुणः । (सु.सू.४१/११)



इंद्रियाणाम्‌ ग्राह्यत्वम्‌ ? परिक्षण ?

असौ त्वग्‌-इन्द्रिय ग्राह्यः, चक्षुः इन्द्रिय ग्राह्यः च । (च.शा.६/१०)



परिक्षण भावः ?

दोष - श्लेष्मा ।

धातु - मेदोधातोः कर्म ।(अ.सं.सू.१)

धातुमल - अक्षिविट्‌-त्वचां यः स्नेहः स मञ्जो मलः ।

(च.चि.१५/१९,सु.सू.४६/५२९)



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॥उष्ण गुण निरुपणम्‌॥



पु.

विशेषणः,

घर्मः, आतपः । (सु.सू.३०/२१)

विशेषणः ।

अग्निगुणभूयिष्ठम्‌ ।

यथा उष्णवीर्यद्रव्यम्‌ । (च.क.१/५)





विंशति गुणेषु एकः ।

शीतविपरीतगुणः । (अ.ह्र.सू.१/१८)

वीर्यसंज्ञको गुणः ।



तस्य कर्म -

स्वेदने शक्तिः । (अ.ह्र.सू.१/१८)



महाभूतत्व -

अग्निगुणभूयिष्ठः । (सु.सू.४१/११)

यद्‌ अग्निगुण भूयिष्ठम्‌ तद्‍ तेजो गुण भूयिष्ठम्‌ । (सु.शा.३/३)



अस्य कर्म ?

क्लेशकरं , भेदनं , पाचनं, मूर्च्छा-तॄट-स्वेद-दाह करम्‌ । (सु.सू.४६/५१४)

वातघ्नः । (सु.सू.४१/११)



इंद्रियाणाम्‌ ग्राह्यत्वम्‌ ? परिक्षण ?

त्वग्‌ इंद्रियस्थान ग्राह्य स्पर्शः । (च.शा.६/१०)



परिक्षण भावः ?

दोष - पित्त ।

धातु - रक्तधातू गुणः अनुष्णशीतः ।(सु.सू.२१/१७)

धातुमल - रसस्य मलो रजः । आग्नेयम्‌ आर्तवम्‌ ।

रक्तस्य मलं पित्तम्‌ ।(च.चि१५/१८)

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क्रमशः ॥

Friday, January 14, 2011

* अधिकरण - ऊष्मन्‌ (ऊष्मणो) from ...(अ.ह्र.सू.१३/२५) ||

* अधिकरण - ऊष्मन्‌ (ऊष्मणो) from ...(अ.ह्र.सू.१३/२५) ||

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संदर्भ -

ऊष्मणो अल्प बलत्वेन धातुम्‌ आद्यम्‌ अपाचितम्‌ ।

दुष्टम्‌ आमाशयगतं रसं आमं प्रचक्षते ॥

(अ.ह्र.सू.१३/२५)

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प्रदेश - (अ.ह्र.सू.१३/२५) मधील "आम" संबंधीत "ऊष्मा" हा "जाठराग्नी" म्हणजेच "पाचक पित्त"हेच आहे.

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उद्देश -

१. ऊष्मणः = अग्नेः ।.......ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) अरुणदत्त - सर्वांड्गसुन्दर व्याख्यया

२. ऊष्मणो = रसाग्नेः।.............ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) हेमाद्रि - आयुर्वेद रसायन टीका

३. अग्निः एव पित्तान्तर्गतः -> कुपितSकुपिता -> मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः।

..............ऊष्मणः (च.सं.सू.१२/११) श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका

४.पित्त एव अग्निः । (सु.सू.२१/९)

५.अन्नस्य पक्ता = पाचक पित्तं ऊष्मा वा (अ.ह्र.शा.३/४९)

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निर्देश -

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१. ऊष्मणः = अग्नेः ।.......ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) अरुणदत्त - सर्वांड्गसुन्दर व्याख्यया

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ऊष्मणो अल्प बलत्वेन धातुम्‌ आद्यम्‌ अपाचितम्‌ ।

दुष्टम्‌ आमाशयगतं रसं आमं प्रचक्षते ॥

(अ.ह्र.सू.१३/२५)

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मराठीत अर्थ -

अग्नीच्या कमजोरपणामुळे आद्य धातु जो म्हणजे - रस ,

तो आमाशयांत अपक्वच राहून (वातादिकांनी ) दुष्ट झाला,

म्हणजे त्याला आमसंज्ञा प्राप्त होते.

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ऊष्मणः * अग्नेः

अल्पबलत्वेन * दौर्बल्येन

आद्यं * प्रथमं

धातु रसं * रसाख्यम्‌

अपाचिताम्‌-आमं प्रचक्षते-वदन्ति ।

आचार्याः इति शेषः ।

किम्भूतं रसम्‌ ? आमाशयगतम्‌ ।

तथा, दुष्टं - वातादि-अनुशयितम्‌ ।

'रस'ग्रहणम् ‌- अनिलस्य निरासार्थम्‌ ।

अन्यथा - आद्यो धातुः वाताख्य इति शड्क्येत ।

वातादिनाम्‌ अपि धातु संज्ञाsस्ति-एव ।

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२. ऊष्मणो = रसाग्नेः।.............ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) हेमाद्रि - आयुर्वेद रसायन टीका

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आमलक्षणम्‌-आह - ऊष्मण इति ।

ऊष्मणो * रसाग्नेः ।

धातुं * न दोषं मलं वा ।

आद्यं * न रक्तादिकम्‌ ।

रसं * न रसत्वात्‌- प्रच्युतं रक्तत्वम्‌-अप्राप्तम्‌ ॥

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"उष्मणो अल्प बलत्वेन.." ???

==>?

आमाची उत्पत्ती ही उष्म्याच्या अल्पबलामुळेच होते .

आता हा उष्मा म्हणजे नक्की काय ?

उष्मा हा शब्द कुठे आला आहे ?

तर तो अग्निच्या कार्यात --{च.सू.१२/११ श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका} आलेला आहे !

पुढे...

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३. अग्निः एव पित्तान्तर्गतः -> कुपितSकुपिता -> मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः।

..............ऊष्मणः (च.सं.सू.१२/११) श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका

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मरीचिः उवाच -


अग्निः एव पित्तान्तर्गतः : *इति शरीरे ज्वालादियुक्तवन्हिनिषेधेन पित्तोष्मरुपस्य-

वन्हेः सद्भावं दर्शयति ।

कुपितSकुपिता *न तु पित्तादभेदं,

शुभा शुभानि करोति,

तद्‌ यथा -

१. पक्तिम्‌-अपक्तिम्‌ : *इति अविकृति-विकृति-भेदेन पाचकस्य-"अग्नेः" कर्म ।

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२. दर्शनम्‌-अदर्शनम्‌ *इति दर्शन-अदर्शने नेत्रगतस्य-आलोचकस्य,

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३. मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः,

४. प्रकृति-विकृति वर्णो, *इति वर्णभेदौ च त्वक्‌-गतस्य भ्राजकस्य,

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५. शौर्य-भयं,

६. क्रोधं-हर्षं,

७. मोहं-प्रसादम्‌, *इति ह्र्दयस्थस्य साधकस्य,

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*रञ्जकस्य तु बहिःस्फुटकार्य-अदर्शनात्‌ उदाहरणं न कृतम्‌ ।

इत्येवम्‌ आदि इति च अपराणि द्वंद्वानि इति ।

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ह्यावरील *व्याख्या (टीका) वाचणे कमप्राप्त आहे !

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ह्यावरून

१. ऊष्मणो म्हणजे अग्नि हे अरुणदत्तच्या वचनानुसार निश्चित होते

आणि कोणता अग्नि ? तर पित्तान्तर्गत अग्नि हे महर्षी मरीचिंच्या वचनावरुन निश्चित होते.

तसेच....

पुढे....

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४.पित्त एव अग्निः । (सु.सू.२१/९)

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" न खलु पित्त-व्यतिरेकात्‌-अन्योsग्निः-उपलभ्यते ॥ " (सु.सू.२१/९)

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ह्या वरुन

* पित्त हे तेजस महाभूत प्रधान द्रव्य असून अग्नि हा त्या स्थित ऊष्म(उष्ण) असा गुण आहे व
o त्यात आश्रयाश्रयी भाव आहे ............ हे निश्चित होते.

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त्याचप्रमाणे,

५.अन्नस्य पक्ता = पाचक पित्तं ऊष्मा वा (अ.ह्र.शा.३/४९)

" अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरेरितम्‌ ।

दोषधातुमलादीनाम्‌-उष्मा-इति-आत्रेय शासनम्‌ ॥ "

(अ.ह्र.शा.३/४९)

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अर्थात

अन्नाचे पचन करणारे पित्त...

पूर्वी (दोषभेदीय सूत्रस्थानातील १२व्या अध्यायात) सांगीतलेले

* "पाचक" होय (असे धन्वंतरींचे मत आहे.) तर,
* वातादित्रिदोष-सप्तधातु-तीन मल यांच्यातील "ऊष्मा" होय

असे आत्रेयांचे मत आहे.


* येथे ऊष्मा हा शब्द त्रिदोष - सप्तधातु - त्रिमल यांचे सहाचर्य दर्शवितो !!

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शारीर ऊष्म्याचे मात्रा - अमात्रात्व हे भ्राजक पित्ताचे कर्म आहे असा अर्थ चक्रपाणिदत्तांनी काढलेला आहे हे निश्चित,

पुढे.. त्याच प्रमाणे - ३, ४ व ५ वरुन ...

आमाशयस्थित पाचक पित्ताचे कार्य पचनासाठी लागणार्‍या ऊष्म्याची मात्रा निश्चित ठेवणे,

असा अर्थ

हेत्वर्थ +/- अतिदेश ह्या तंत्रयुक्तींनी काढता येतो.

(असे माझे एकीय मत आहे, आपण स्वतः शास्रीय तर्क करून मगच त्यास न्याय द्यावा.)

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सार काय निघतो ??

अनेकान्त तंत्रयुक्ती वापर! -----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

"ऊष्मा" म्हणजे नक्की काय ?

ह्यासाठी "पदार्थ तंत्रयुक्ती" वापरलेली आहे.

पहावी..

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१. अरुणदत्त - अग्नि !

कोणता ? - जाठराग्नि

का ? - (स्थानसापेक्ष)


२. हेमाद्रि - रसाग्नि !

कोणता ? - आहाररसापासून रसाची निर्मिती करणारा

का ? - रस ह्या आद्य धातु च्या अपचित अवस्थेबद्दल चर्चा चालु आहे म्हणून.


३. मरीचि - मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः {त्वक्‌स्थित=सार्वदैहिक}

चक्रपाणिदत्त - त्वक्‌-गतस्य भ्राजकस्य

का ? - भ्राजक पित्त कर्म

* अर्थापत्ती तंत्रयुक्तीसापेक्ष - पाचक पित्त कर्म {आमाशयस्थित+रसनिर्मितीसापेक्ष}


४. वाग्भट - १. पाचक पित्त = अग्नि (धन्वंतरिसंप्रदाय)

२. सप्तधातू-त्रिदोष-त्रिमल स्थित उष्मा = अग्नि (आत्रेय संप्रदाय)


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निष्कर्ष -


१. ऊष्मा = आमाशयस्थ ऊष्मा = जाठराग्नि = पाचकपित्त

...............* "पदार्थ तंत्रयुक्ती" नुसार !!


२. पित्त हे तेजस महाभूत प्रधान द्रव्य असून अग्नि हा त्या स्थित ऊष्मा (उष्ण) असा गुण आहे


३. त्यात आश्रयाश्रयी भाव आहे हे निश्चित होते.


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वैद्य प्र प्र व्याघ्रसुदन

९८६७ ८८८ २६५

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काढलेला निष्कर्ष माझे "एकीय"मत आहे असे नाही, शास्राधार देण्याचा प्रयत्न केला आहे.

तरी आपण सर्वांनी सूक्ष्मावलोकनाने त्रुटी भरून काढाव्यात व सदर संभाषेस अजून PERFECTION कडे न्यावे.

Thursday, January 6, 2011

॥ योगरत्नाकर ॥ नुसार आमवातात स्नेहपान कसे ??

॥ योगरत्नाकर ॥ नुसार आमवातात स्नेहपान कसे ??



लंघनं स्वेदनं तिक्तदीपनानि कटूनि च ।

विरेचनं स्नेहपानं बस्तयः च आममारुते ॥१॥

रुक्षः स्वेदो विधातव्यो वालुकापोट्टलैः तथा ।

उपनाहः च कर्तव्याः तेsपि स्नेहविवर्जिताः ॥२॥

(योग रत्नाकर । आमवात चि. । )


लं. स्वे. ति. दी. कटुनि च । -->> रुग्ण उपशयानुगामी होतो. अश्या वेळी रुग्ण निवेदनानुसार,

* सूज गेली

* स्तंभ नाही

* ग्रह नाही

* गौरव नाही

* भूक लागते

पण ,वैद्यराज पथ्याचा आग्रह सोडत नाहीत ! उष्ण तीक्ष्ण औषध वापर सोडत नाही !

अशावेळी स्नेहपानम् ही अवस्था आपल्या हातून सुटू शकते.व चिकित्सा अति अपतर्पण करणारी होते.



लं. स्वे. ति. दी. कटुनि च । -->> रुग्ण उपशयानुगामी होतो.

परंतु ह्या उष्ण तीक्ष्ण लघु अपतर्पणकर पाचन चिकित्सेमुळे रुक्षत्व व खवैगुण्य येऊ लागते.

अशा वेळी चिकित्सासूत्राप्रमाणे "विरेचनं व स्नेहपानं बस्तयः च " हे जर लक्षात घेतले नाही तर...

अशा सततच्या बलवान (अपतर्पण कारक) उपचारांमुळे बलवान अपतर्पण घडते.

व ते स्रोतोवैकल्यकर असू शकते...!


बस्तयः - एरण्डमूलादी / वैतरण / दोषोत्क्लेशन असे बस्ती हे ही अपतर्पण करणारे होत.

त्या विशेष बस्ती चिकित्से पश्चात्‌ लघु मात्रेत शमन , दीपन , पाचन , स्त्रोतोबल्यकर , मलमूत्रसंग्रहणकर,

पुष्ट्यर्थं अश्या विविध हेतुंनी स्नेहपान किंवा स्नेहकल्प देणे अपेक्षित आहे.


सततच्या बलवान (अपतर्पण कारक) उपचारांमुळे बलवान अपतर्पण घडते.

त्यावर उपाय म्हणून नंतर, सातत्याने लघु संतर्पण "स्तंभन - बृंहण - स्ने्हन" द्यावे लागते.


एरण्ड स्नेह = एरण्ड तैल = एरण्ड बीजमज्जा स्नेह ।

एरण्ड = आसमन्तात्‌ ईरयति अंगानि ।

एरण्ड MCK-U-M स्निग्ध तीक्ष्ण सूक्ष्म

वृष्य-वातहराणाम्‌* भेदनीय स्वेदोपग अंगमर्दप्रशमन

गामित्व :- त्रिक्‌- अस्थि-मज्जा-शुक्र पुरिष

* ॥ एरण्डफलमज्जा विड्‍भेदी वात-श्लेष्म-उदर अपहा ॥ (भा.प्र.)

* दशमूलकषायेण पिबेत्‌ वा नागराम्भसा ।

कटिशूलेषु सर्वेषु तैल‌म्‌ एरण्ड संभवम्‌ ॥ (च.द.)

* क्षीरेण एरण्डतैलं वा प्रयोगेण पिबेत्‌ नरः ।

बहुदोषो विरेकार्थं जीर्णे क्षीर-रसौदनः ॥ (च.चि.२६)


चिकित्सा तत्व :- आमपाचन + विरेचन

चिकित्सा प्रकार :- व्याधीप्रत्यनिक चिकित्सा

चिकित्सा प्रयोग :- एरण्डस्नेह २ च (१० मिली) + शुण्ठी फाण्ट / रास्नासप्तक क्वाथ २० मिली

प्रातः / निशी

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"॥ वैद्य य.ग.जोशी यांच्या कायचिकित्सा पुस्तकातुन ॥ "

आमवातात आमाची लक्षणे :-


{सामान्य लक्षणे + पुर्वरुपे}

अंगमर्दो अरुचि तृष्णा आलस्य गौरवं ज्वरः ।

अपाकः शुनतां अंगानाम्‌ आमवातस्य लक्षणम्‌ ॥


{सार्वदिहिक लक्षणे}

जनयेत्‌ सो अग्निदौर्बल्यं प्रसेक अरुचि गौरवम्‌ ।

उत्साहहानिं वैरस्यं दाहं च बहुमूत्रताम्‌ ॥

कुक्षौ कठिनतां शूलं तथा निद्राविपर्ययम्‌ ।

तृट्‍ छर्दि भ्रम मूर्छा ह्र्द्‍ग्रहं विड्‍विबद्धताम्‌ ॥

जाड्य आन्त्रकूजनम्‌ आनाहं कष्टां च अन्य अनुपद्रवान्‌ ॥


सामान्यपणे सार्वदैहिक सामावस्थेत शोधनोपक्रम करता येत नाही.

सूत्र - "सर्व देहप्रविसृतान्‌ सामान्‌ दोषान्‌ न निर्हरेत्‌ ।"

आमवातात आम ++ असल्याने विरेचन व स्नेहपान कसे देता येईल ??

एरण्डस्नेहाचे कार्य केवळ महास्रोतसापुरतेच मर्यादित आहे. (कायचिकित्सा /वैद्य य.ग.जोशी)

एरण्ड स्नेह ग्रहणीद्वारे शोषला न जाता पुरिष मल सह विरेचनात बाहेर पडतो.

त्यामुळे एरण्डस्नेहाचे योग्य मात्रेतील प्रयोगाने सार्वदैहीक सामावस्था वृद्धीचे दुष्परिणाम दिसत नाहीत.


माधव निदानातील संप्राप्ति वाचल्यास कळते, की ह्या व्याधीतील आम हा स्त्रोतसांमध्ये अभिष्यंद निर्माण करतो , तो अनेक वर्णांचा असून , अतिपिच्छिल असतो.

परंतु आमवात ह्या व्याधीत हा आम धातुंमध्ये लीन झालेला नसतो ,व वायुमुळे संचारित्व प्राप्त झाले असल्यामुळे महास्त्रोतसापुरते मर्यादित विरेचन द्वारे आमाचे निर्हरण होते व संभाव्य दुष्परिणाम टाळले जातात.


******* सदर उतारा पाठ पुस्तकातून वाचून घ्यावा व समजण्याचा प्रयत्न करावा !!*********

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॥योगरत्नाकर नुसार आमवातात स्नेहपान ॥



आमवातात प्रशस्त स्नेहपान कोणते ?

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आमवातगजेन्द्रस्य शरीरवनचारिणः ।

एक एव अग्रणीः हन्ता एरण्डस्नेहकेसरि ॥३॥

(योग रत्नाकर । आमवात चि. । )



अर्थ -

आमवात रुपी हत्ती जो शरीर रुपी वनात (मदमत्त होऊन) (मुक्त) संचार करत आहे ,

त्याला मारणार्‍यां (औषधांमध्ये) अग्र्य=सर्वोतकृष्ट असा (एकमेव?) "एरण्ड-स्नेह"रुपी हा एकच सिंह पुरेसा आहे !

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कटी-तटनिकुञ्जेषु सञ्चरन्‌ वातकुञ्जरः ।

एरण्डतैलसिंहस्य गन्धामाघ्राय गच्छति ॥४॥

(योग रत्नाकर । आमवात चि. । )



अर्थ -

कटी(अस्थि व वात स्थान) ह्या नदी आश्रित तटांवरील वनांत (वाताचे साहचर्य असलेल्या अस्थिवह स्त्रोतसात्?‌)

विचरण करणारा "(आम)वात रुपी हत्ती",..."एरण्डेल रुपी सिंहा"चा..... गंध हुंगताच... निघून जातो !

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कटी = अस्थिमूल कसे ?

टीका :-

कटी पश्चिमो भागः = जघनं । (सु.शा.६/२६)

कट्याः पुरोभागः , भगास्थिसमीपो भागः । (सु.शा.३/८)

जघनं = अस्थिवहानां स्त्रोतसां मेदो मूलं जघनं च । (च.वि.५.।८)

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"कटी वाताचे स्थान" कसे ?

सुगमः -

पक्वाशय कटी सक्थि श्रोत्र अस्थि स्पर्शन्‌ इन्द्रियम्‌ ।

स्थानं वातस्य... (अ.ह्र.।सूत्रस्थान।१२।१)

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इतर कोणते स्नेह कल्प प्रयुक्त केले जातात ?

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॥ शुण्ठीघृतम्‌ ॥



पुष्टर्थं पयसा साध्यं

दध्ना विण्मूत्रसंग्रहे ।

दीपनार्थं मस्तुना च प्रकिर्तितम्‌ ॥१॥

सर्पिः नागरकल्केन

सौवीरं

च चतुर्गुणम्‌ । सिद्धं...

अग्निकरं श्रेष्ठम्‌

आमवातहरं परम्‌ ॥२॥ (योग रत्नाकर । आमवात चि. । )



टीका :-

पयस , दधि , मस्तु प्रमाणं :- चतुर्गुणं ग्राह्यं ।

सौवीरं इव ।



घटक द्रव्यस्य ग्राह्य प्रमाणं :-

नागरकल्क :- अर्ध शराव (SI)

सर्पिः :- गोघृतं । तद्‌ अपि मूर्छित । १ प्रस्थं प्रमाणम्‌ ।

सौवीरं :- सौवीरं कांजी नाम प्रसिद्धः । चतुर्गुणम्‌ सुलभं ॥



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इतर कल्प ?


॥ गंधर्व हरितकी ॥....................१

॥ खण्डशुण्ठ्याद्यवलेहम्‌ ॥..........२(योगरत्नाकर)




ज्येष्ठ वैद्यांनी अधिक मार्गदर्शन करणे...त्रुटी असल्यास सुधारणे....

धन्यवाद !!
वैद्य प्र प्र व्याघ्रसुदन