Friday, January 14, 2011

* अधिकरण - ऊष्मन्‌ (ऊष्मणो) from ...(अ.ह्र.सू.१३/२५) ||

* अधिकरण - ऊष्मन्‌ (ऊष्मणो) from ...(अ.ह्र.सू.१३/२५) ||

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संदर्भ -

ऊष्मणो अल्प बलत्वेन धातुम्‌ आद्यम्‌ अपाचितम्‌ ।

दुष्टम्‌ आमाशयगतं रसं आमं प्रचक्षते ॥

(अ.ह्र.सू.१३/२५)

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प्रदेश - (अ.ह्र.सू.१३/२५) मधील "आम" संबंधीत "ऊष्मा" हा "जाठराग्नी" म्हणजेच "पाचक पित्त"हेच आहे.

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उद्देश -

१. ऊष्मणः = अग्नेः ।.......ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) अरुणदत्त - सर्वांड्गसुन्दर व्याख्यया

२. ऊष्मणो = रसाग्नेः।.............ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) हेमाद्रि - आयुर्वेद रसायन टीका

३. अग्निः एव पित्तान्तर्गतः -> कुपितSकुपिता -> मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः।

..............ऊष्मणः (च.सं.सू.१२/११) श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका

४.पित्त एव अग्निः । (सु.सू.२१/९)

५.अन्नस्य पक्ता = पाचक पित्तं ऊष्मा वा (अ.ह्र.शा.३/४९)

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निर्देश -

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१. ऊष्मणः = अग्नेः ।.......ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) अरुणदत्त - सर्वांड्गसुन्दर व्याख्यया

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ऊष्मणो अल्प बलत्वेन धातुम्‌ आद्यम्‌ अपाचितम्‌ ।

दुष्टम्‌ आमाशयगतं रसं आमं प्रचक्षते ॥

(अ.ह्र.सू.१३/२५)

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मराठीत अर्थ -

अग्नीच्या कमजोरपणामुळे आद्य धातु जो म्हणजे - रस ,

तो आमाशयांत अपक्वच राहून (वातादिकांनी ) दुष्ट झाला,

म्हणजे त्याला आमसंज्ञा प्राप्त होते.

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ऊष्मणः * अग्नेः

अल्पबलत्वेन * दौर्बल्येन

आद्यं * प्रथमं

धातु रसं * रसाख्यम्‌

अपाचिताम्‌-आमं प्रचक्षते-वदन्ति ।

आचार्याः इति शेषः ।

किम्भूतं रसम्‌ ? आमाशयगतम्‌ ।

तथा, दुष्टं - वातादि-अनुशयितम्‌ ।

'रस'ग्रहणम् ‌- अनिलस्य निरासार्थम्‌ ।

अन्यथा - आद्यो धातुः वाताख्य इति शड्क्येत ।

वातादिनाम्‌ अपि धातु संज्ञाsस्ति-एव ।

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२. ऊष्मणो = रसाग्नेः।.............ऊष्मणो (अ.ह्र.सू.१३/२५) हेमाद्रि - आयुर्वेद रसायन टीका

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आमलक्षणम्‌-आह - ऊष्मण इति ।

ऊष्मणो * रसाग्नेः ।

धातुं * न दोषं मलं वा ।

आद्यं * न रक्तादिकम्‌ ।

रसं * न रसत्वात्‌- प्रच्युतं रक्तत्वम्‌-अप्राप्तम्‌ ॥

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"उष्मणो अल्प बलत्वेन.." ???

==>?

आमाची उत्पत्ती ही उष्म्याच्या अल्पबलामुळेच होते .

आता हा उष्मा म्हणजे नक्की काय ?

उष्मा हा शब्द कुठे आला आहे ?

तर तो अग्निच्या कार्यात --{च.सू.१२/११ श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका} आलेला आहे !

पुढे...

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३. अग्निः एव पित्तान्तर्गतः -> कुपितSकुपिता -> मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः।

..............ऊष्मणः (च.सं.सू.१२/११) श्रीचक्रपाणिदत्त चरकतात्पर्यटीकायां-आयुर्वेददीपिका

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मरीचिः उवाच -


अग्निः एव पित्तान्तर्गतः : *इति शरीरे ज्वालादियुक्तवन्हिनिषेधेन पित्तोष्मरुपस्य-

वन्हेः सद्भावं दर्शयति ।

कुपितSकुपिता *न तु पित्तादभेदं,

शुभा शुभानि करोति,

तद्‌ यथा -

१. पक्तिम्‌-अपक्तिम्‌ : *इति अविकृति-विकृति-भेदेन पाचकस्य-"अग्नेः" कर्म ।

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२. दर्शनम्‌-अदर्शनम्‌ *इति दर्शन-अदर्शने नेत्रगतस्य-आलोचकस्य,

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३. मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः,

४. प्रकृति-विकृति वर्णो, *इति वर्णभेदौ च त्वक्‌-गतस्य भ्राजकस्य,

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५. शौर्य-भयं,

६. क्रोधं-हर्षं,

७. मोहं-प्रसादम्‌, *इति ह्र्दयस्थस्य साधकस्य,

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*रञ्जकस्य तु बहिःस्फुटकार्य-अदर्शनात्‌ उदाहरणं न कृतम्‌ ।

इत्येवम्‌ आदि इति च अपराणि द्वंद्वानि इति ।

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ह्यावरील *व्याख्या (टीका) वाचणे कमप्राप्त आहे !

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ह्यावरून

१. ऊष्मणो म्हणजे अग्नि हे अरुणदत्तच्या वचनानुसार निश्चित होते

आणि कोणता अग्नि ? तर पित्तान्तर्गत अग्नि हे महर्षी मरीचिंच्या वचनावरुन निश्चित होते.

तसेच....

पुढे....

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४.पित्त एव अग्निः । (सु.सू.२१/९)

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" न खलु पित्त-व्यतिरेकात्‌-अन्योsग्निः-उपलभ्यते ॥ " (सु.सू.२१/९)

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ह्या वरुन

* पित्त हे तेजस महाभूत प्रधान द्रव्य असून अग्नि हा त्या स्थित ऊष्म(उष्ण) असा गुण आहे व
o त्यात आश्रयाश्रयी भाव आहे ............ हे निश्चित होते.

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त्याचप्रमाणे,

५.अन्नस्य पक्ता = पाचक पित्तं ऊष्मा वा (अ.ह्र.शा.३/४९)

" अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरेरितम्‌ ।

दोषधातुमलादीनाम्‌-उष्मा-इति-आत्रेय शासनम्‌ ॥ "

(अ.ह्र.शा.३/४९)

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अर्थात

अन्नाचे पचन करणारे पित्त...

पूर्वी (दोषभेदीय सूत्रस्थानातील १२व्या अध्यायात) सांगीतलेले

* "पाचक" होय (असे धन्वंतरींचे मत आहे.) तर,
* वातादित्रिदोष-सप्तधातु-तीन मल यांच्यातील "ऊष्मा" होय

असे आत्रेयांचे मत आहे.


* येथे ऊष्मा हा शब्द त्रिदोष - सप्तधातु - त्रिमल यांचे सहाचर्य दर्शवितो !!

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शारीर ऊष्म्याचे मात्रा - अमात्रात्व हे भ्राजक पित्ताचे कर्म आहे असा अर्थ चक्रपाणिदत्तांनी काढलेला आहे हे निश्चित,

पुढे.. त्याच प्रमाणे - ३, ४ व ५ वरुन ...

आमाशयस्थित पाचक पित्ताचे कार्य पचनासाठी लागणार्‍या ऊष्म्याची मात्रा निश्चित ठेवणे,

असा अर्थ

हेत्वर्थ +/- अतिदेश ह्या तंत्रयुक्तींनी काढता येतो.

(असे माझे एकीय मत आहे, आपण स्वतः शास्रीय तर्क करून मगच त्यास न्याय द्यावा.)

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सार काय निघतो ??

अनेकान्त तंत्रयुक्ती वापर! -----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

"ऊष्मा" म्हणजे नक्की काय ?

ह्यासाठी "पदार्थ तंत्रयुक्ती" वापरलेली आहे.

पहावी..

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१. अरुणदत्त - अग्नि !

कोणता ? - जाठराग्नि

का ? - (स्थानसापेक्ष)


२. हेमाद्रि - रसाग्नि !

कोणता ? - आहाररसापासून रसाची निर्मिती करणारा

का ? - रस ह्या आद्य धातु च्या अपचित अवस्थेबद्दल चर्चा चालु आहे म्हणून.


३. मरीचि - मात्रा-अमात्रत्वम्‌ उष्मणः {त्वक्‌स्थित=सार्वदैहिक}

चक्रपाणिदत्त - त्वक्‌-गतस्य भ्राजकस्य

का ? - भ्राजक पित्त कर्म

* अर्थापत्ती तंत्रयुक्तीसापेक्ष - पाचक पित्त कर्म {आमाशयस्थित+रसनिर्मितीसापेक्ष}


४. वाग्भट - १. पाचक पित्त = अग्नि (धन्वंतरिसंप्रदाय)

२. सप्तधातू-त्रिदोष-त्रिमल स्थित उष्मा = अग्नि (आत्रेय संप्रदाय)


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निष्कर्ष -


१. ऊष्मा = आमाशयस्थ ऊष्मा = जाठराग्नि = पाचकपित्त

...............* "पदार्थ तंत्रयुक्ती" नुसार !!


२. पित्त हे तेजस महाभूत प्रधान द्रव्य असून अग्नि हा त्या स्थित ऊष्मा (उष्ण) असा गुण आहे


३. त्यात आश्रयाश्रयी भाव आहे हे निश्चित होते.


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वैद्य प्र प्र व्याघ्रसुदन

९८६७ ८८८ २६५

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काढलेला निष्कर्ष माझे "एकीय"मत आहे असे नाही, शास्राधार देण्याचा प्रयत्न केला आहे.

तरी आपण सर्वांनी सूक्ष्मावलोकनाने त्रुटी भरून काढाव्यात व सदर संभाषेस अजून PERFECTION कडे न्यावे.

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